उन्हें में पद से हटा दिया गया लेकिन 1997 में नवाज़ शरीफ ने फिर से सत्ता हासिल कर ली.
उनके चार बच्चे हैं. इनमें दो बेटे और दो बेटियां हैं.
पाकिस्तान के राजनीतिक परिदृश्य में वो पहली बार अक्तूबर 1999 में सामने आईं जब उनके पति की सरकार को गिरा दिया गया और उन्हें क़ैद कर लिया गया था.
उन्हें एक साल तक कैद में रहना पड़ा लेकिन जब नवाज़ शरीफ़ को मिलिट्री कोर्ट ने आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई तो वे अगले 10 सालों तक देश ना लौटने की शर्त पर सऊदी अरब में अपने परिवार के साथ चले गए.
कुलसुम नवाज़ तब सुर्खियों में आईं जब हिरासत के दौरान सुरक्षाकर्मियों की अवहेलना करते हुए उन्होंने अपने मॉडल टाउन निवास से पूरे लाहौर शहर में जुलूस निकाला.
उस वक्त वह पीएमएलएन पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष थीं और साल 2002 तक पद पर बनी रहीं.
उसके बाद कुलसुम राजनीति से दूर रहीं लेकिन पिछले साल जब उनके पति को सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री पद के लिए अयोग्य करार दिया तो पार्टी ने उन्हें अपने पति की सीट से उपचुनाव में खड़ा किया. कुछ लोगों को पार्टी के इस फैसले से हैरानी हुई क्योंकि ऐसा लग रहा था कि शरीफ़ अपनी बेटी को अपनी राजनीतिक विरासत थमाएंगे.
लेकिन राजनीति के कुछ जानकारों ने बताया कि कुलसुम नवाज़ कोई राजनीतिक नौसिखिया नहीं थीं.
वह 1970 के दशक से ही नवाज़ शरीफ़ के पूरे राजनीतिक करियर के दौरान उनके साथ खड़ी रहीं और कई मामलों पर सलाह भी देती रहीं.
कुछ पार्टी नेताओं के मुताबिक़ उन्होंने कभी-कभी शरीफ के लिए भाषण भी लिखे और जब 1999 में मुशर्रफ़ शासन में शरीफ़ को गिरफ्तार किया गया तो कुलसुम ने उनकी रिहाई के लिए अभियान भी चलाया.
लेकिन कुलसुम नवाज़ अपनी राजनीतिक ज़िंदगी नहीं जी पाईं.
उन्होंने चुनाव आयोग में नामांकन पत्र दाखिल किया लेकिन फिर अचानक उसी दिन लंदन के लिए जाना पड़ा जब दोबारा उनकी उम्मीदवारी पर उठाई गई आपत्तियों का जवाब देने के लिए उन्हे आयोग के सामने पेश होना था.
कुछ लोगों ने उनके विदेश जाने को लेकर आलोचना भी की क्योंकि वो इसे मतदाताओं को हल्के में लेने की तरह देख रहे थे लेकिन जल्द ही पता चल गया कि उन्हें कैंसर है.
आखिरकार उनके नामांकन को मंजूरी दे दी गई और उन्होंने बड़े अंतर से इमरान खान की पीटीआई पार्टी के उम्मीदवार को हराया.
लेकिन सांसद के रूप में शपथ लेने के लिए वह कभी देश वापस नहीं आ सकीं.सम में 30 जुलाई को एनआरसी की सूची जारी की गई थी. इस सूची में 2 करोड़ 89 लाख 83 हज़ार 677 लोगों को भारत का वैध नागरिक माना गया.
आधिकारिक जानकारी के मुताबिक यहाँ कुल 3 करोड़ 29 लाख 91 हज़ार 384 लोगों ने एनआरसी के लिए आवेदन किया था.
इस तरह 40 लाख से ज़्यादा लोग इस सूची से बाहर हो गए हैं. इन लोगों की नागरिकता पर सवालिया निशान खड़े हो गए हैं.
अमित शाह ने अपने संबोधन में कांग्रेस को भी आड़े हाथों लिया और कहा, "नागरिकता सूची के मामले में कांग्रेस अपना रुख़ साफ़ करे".
इसके पहले दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने कहा था कि देश के बाकी हिस्सों में भी एनआरसी लागू की जानी चाहिए, जिससे देश में दाखिल हो गए घुसपैठियों को पहचान कर बाहर निकाला जा सके.
इसी कार्यक्रम में बीजेपी महासचिव राम माधव ने कहा कि जिन लोगों का नाम असम में जारी होने वाली एनआरसी की अंतिम सूची में नहीं होगा उन्हें देश से बाहर निकाल दिया जाएगा.
संकेत हैं कि बीजेपी आने वाले चुनावों में एनआरसी को बड़ा चुनावी मुद्दा बनाने की पूरी तैयारी में है. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर किस आधार पर बीजेपी एनआरसी के तहत वोट पाने की उम्मीद कर रही है.
इसके जवाब में वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह कहते हैं, ''लोकसभा चुनाव की दृष्टि से भाजपा को लगता है कि एनआरसी के मुद्दे पर वोट प्राप्त किए जा सकते हैं, क्योंकि ये राष्ट्रीय सुरक्षा के पहलू को सामने लाता है साथ ही इसमें एक तरह का धार्मिक पुट भी छिपा हुआ है. हालांकि, धर्म की बात बीजेपी को बोलने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती. बाहरी घुसपैठियों के मुद्दे को भावनात्मक रूप से पेश कर बीजेपी इसका फ़ायदा उठा सकती है.''
बीजेपी नेता अलग-अलग मंचों से बाहरी घुसपैठियों की बात करके भारतीय जनमानस के मन में ये बात बिठाने की कोशिश कर रहे हैं कि देश में रह रहे बाहरी लोग देश की सुरक्षा और विकास के लिए कितना बड़ा ख़तरा हैं.
खुद बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह कहते हैं, ''बाहर से आए ये लोग आतंकवादियों के रूप में घुसते हैं तो भारत की सुरक्षा में छिद्र नहीं करते हैं क्या? ये लोग बहुत से बम धमाकों में संदिग्ध पाए गए हैं. क्या वोटबैंक के लिए इन्हें खुला छोड़ देना होगा ? हम चुन-चुन कर इन्हें देश से बाहर निकाल देंगे.''
अमित शाह अपने कड़े तेवरों में वोट बैंक की राजनीति की बात करते हैं और इसी के ज़रिए एक खास वोट बैंक पर उनकी नज़र होती है.
प्रदीप सिंह इस संदर्भ में कहते हैं, ''बीजेपी को इसका फ़ायदा इस रूप में मिलेगा क्योंकि बाकी पार्टियों के पास इस बात को काटने का कोई तर्क नहीं है, आखिर कांग्रेस या अन्य पार्टियां कैसे यह कह पाएंगी कि बीजेपी इसके ज़रिए गलत कर रही है.''
एक तरफ जहां बीजेपी एनआरसी के जरिए वोट हासिल करने की कोशिश करती दिख रही है वहीं दूसरी तरफ असम में उन लोगों को अपनी नागरिकता की चिंता सता रही है जिनका नाम एनआरसी में नहीं आया है.
असम में एनआरसी का कितना प्रभाव रहा, इस बारे में असम में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार और दैनिक पूर्वोदय के संपादक रवि शंकर रवि कहते हैं, ''जिन ज़िलों में ये माना जाता था कि बाहरी नागरिक बसे हुए हैं वहां जिन्होंने एनआरसी के तहत आवेदन किया था उनमें से 4 या 5 प्रतिशत के ही नाम गायब हुए हैं इसके उलट गुवाहाटी जैसी हिंदू बहुल क्षेत्रों से लगभग 16 प्रतिशत लोगों के नाम गायब हैं, ऐसे में यह कहा जा सकता है कि एनआरसी अपने मकसद में कामयाब नहीं रहा है.''
पूर्वोत्तर या देश के अन्य सीमावर्ती इलाकों में एनआरसी लागू करने कितना संभव हो पाएगा इसका अंदाजा तो असम के उदाहरण से ही लगाया जा सकता है.
असम में एनआरसी की प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में पूरी हो रही है. इसके अनुसार एनआरसी में मार्च 1971 के पहले से असम में रह रहे लोगों का नाम दर्ज़ किया गया है, जबकि उसके बाद आए लोगों की नागरिकता को संदिग्ध माना गया है.
ये शर्तें 15 अगस्त, 1985 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और असम आंदोलन का नेतृत्व कर रही असम गण परिषद (एजीपी) के बीच हुए असम समझौते के अनुरूप हैं.
बीजेपी को आगामी चुनावों में एनआरसी का फ़ायदा मिलेगा या नहीं यह अभी स्पष्ट तौर पर नहीं कहा जा सकता लेकिन बाहरी घुसपैठियों देश से बाहर निकालने की बात उठाकर बीजेपी नेता इसे चुनावी मुद्दा बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं.
उनके चार बच्चे हैं. इनमें दो बेटे और दो बेटियां हैं.
पाकिस्तान के राजनीतिक परिदृश्य में वो पहली बार अक्तूबर 1999 में सामने आईं जब उनके पति की सरकार को गिरा दिया गया और उन्हें क़ैद कर लिया गया था.
उन्हें एक साल तक कैद में रहना पड़ा लेकिन जब नवाज़ शरीफ़ को मिलिट्री कोर्ट ने आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई तो वे अगले 10 सालों तक देश ना लौटने की शर्त पर सऊदी अरब में अपने परिवार के साथ चले गए.
कुलसुम नवाज़ तब सुर्खियों में आईं जब हिरासत के दौरान सुरक्षाकर्मियों की अवहेलना करते हुए उन्होंने अपने मॉडल टाउन निवास से पूरे लाहौर शहर में जुलूस निकाला.
उस वक्त वह पीएमएलएन पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष थीं और साल 2002 तक पद पर बनी रहीं.
उसके बाद कुलसुम राजनीति से दूर रहीं लेकिन पिछले साल जब उनके पति को सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री पद के लिए अयोग्य करार दिया तो पार्टी ने उन्हें अपने पति की सीट से उपचुनाव में खड़ा किया. कुछ लोगों को पार्टी के इस फैसले से हैरानी हुई क्योंकि ऐसा लग रहा था कि शरीफ़ अपनी बेटी को अपनी राजनीतिक विरासत थमाएंगे.
लेकिन राजनीति के कुछ जानकारों ने बताया कि कुलसुम नवाज़ कोई राजनीतिक नौसिखिया नहीं थीं.
वह 1970 के दशक से ही नवाज़ शरीफ़ के पूरे राजनीतिक करियर के दौरान उनके साथ खड़ी रहीं और कई मामलों पर सलाह भी देती रहीं.
कुछ पार्टी नेताओं के मुताबिक़ उन्होंने कभी-कभी शरीफ के लिए भाषण भी लिखे और जब 1999 में मुशर्रफ़ शासन में शरीफ़ को गिरफ्तार किया गया तो कुलसुम ने उनकी रिहाई के लिए अभियान भी चलाया.
लेकिन कुलसुम नवाज़ अपनी राजनीतिक ज़िंदगी नहीं जी पाईं.
उन्होंने चुनाव आयोग में नामांकन पत्र दाखिल किया लेकिन फिर अचानक उसी दिन लंदन के लिए जाना पड़ा जब दोबारा उनकी उम्मीदवारी पर उठाई गई आपत्तियों का जवाब देने के लिए उन्हे आयोग के सामने पेश होना था.
कुछ लोगों ने उनके विदेश जाने को लेकर आलोचना भी की क्योंकि वो इसे मतदाताओं को हल्के में लेने की तरह देख रहे थे लेकिन जल्द ही पता चल गया कि उन्हें कैंसर है.
आखिरकार उनके नामांकन को मंजूरी दे दी गई और उन्होंने बड़े अंतर से इमरान खान की पीटीआई पार्टी के उम्मीदवार को हराया.
लेकिन सांसद के रूप में शपथ लेने के लिए वह कभी देश वापस नहीं आ सकीं.सम में 30 जुलाई को एनआरसी की सूची जारी की गई थी. इस सूची में 2 करोड़ 89 लाख 83 हज़ार 677 लोगों को भारत का वैध नागरिक माना गया.
आधिकारिक जानकारी के मुताबिक यहाँ कुल 3 करोड़ 29 लाख 91 हज़ार 384 लोगों ने एनआरसी के लिए आवेदन किया था.
अमित शाह ने अपने संबोधन में कांग्रेस को भी आड़े हाथों लिया और कहा, "नागरिकता सूची के मामले में कांग्रेस अपना रुख़ साफ़ करे".
इसके पहले दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम में असम के मुख्यमंत्री सर्बानंद सोनोवाल ने कहा था कि देश के बाकी हिस्सों में भी एनआरसी लागू की जानी चाहिए, जिससे देश में दाखिल हो गए घुसपैठियों को पहचान कर बाहर निकाला जा सके.
इसी कार्यक्रम में बीजेपी महासचिव राम माधव ने कहा कि जिन लोगों का नाम असम में जारी होने वाली एनआरसी की अंतिम सूची में नहीं होगा उन्हें देश से बाहर निकाल दिया जाएगा.
संकेत हैं कि बीजेपी आने वाले चुनावों में एनआरसी को बड़ा चुनावी मुद्दा बनाने की पूरी तैयारी में है. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर किस आधार पर बीजेपी एनआरसी के तहत वोट पाने की उम्मीद कर रही है.
इसके जवाब में वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह कहते हैं, ''लोकसभा चुनाव की दृष्टि से भाजपा को लगता है कि एनआरसी के मुद्दे पर वोट प्राप्त किए जा सकते हैं, क्योंकि ये राष्ट्रीय सुरक्षा के पहलू को सामने लाता है साथ ही इसमें एक तरह का धार्मिक पुट भी छिपा हुआ है. हालांकि, धर्म की बात बीजेपी को बोलने की ज़रूरत ही नहीं पड़ती. बाहरी घुसपैठियों के मुद्दे को भावनात्मक रूप से पेश कर बीजेपी इसका फ़ायदा उठा सकती है.''
बीजेपी नेता अलग-अलग मंचों से बाहरी घुसपैठियों की बात करके भारतीय जनमानस के मन में ये बात बिठाने की कोशिश कर रहे हैं कि देश में रह रहे बाहरी लोग देश की सुरक्षा और विकास के लिए कितना बड़ा ख़तरा हैं.
खुद बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह कहते हैं, ''बाहर से आए ये लोग आतंकवादियों के रूप में घुसते हैं तो भारत की सुरक्षा में छिद्र नहीं करते हैं क्या? ये लोग बहुत से बम धमाकों में संदिग्ध पाए गए हैं. क्या वोटबैंक के लिए इन्हें खुला छोड़ देना होगा ? हम चुन-चुन कर इन्हें देश से बाहर निकाल देंगे.''
अमित शाह अपने कड़े तेवरों में वोट बैंक की राजनीति की बात करते हैं और इसी के ज़रिए एक खास वोट बैंक पर उनकी नज़र होती है.
प्रदीप सिंह इस संदर्भ में कहते हैं, ''बीजेपी को इसका फ़ायदा इस रूप में मिलेगा क्योंकि बाकी पार्टियों के पास इस बात को काटने का कोई तर्क नहीं है, आखिर कांग्रेस या अन्य पार्टियां कैसे यह कह पाएंगी कि बीजेपी इसके ज़रिए गलत कर रही है.''
एक तरफ जहां बीजेपी एनआरसी के जरिए वोट हासिल करने की कोशिश करती दिख रही है वहीं दूसरी तरफ असम में उन लोगों को अपनी नागरिकता की चिंता सता रही है जिनका नाम एनआरसी में नहीं आया है.
असम में एनआरसी का कितना प्रभाव रहा, इस बारे में असम में मौजूद वरिष्ठ पत्रकार और दैनिक पूर्वोदय के संपादक रवि शंकर रवि कहते हैं, ''जिन ज़िलों में ये माना जाता था कि बाहरी नागरिक बसे हुए हैं वहां जिन्होंने एनआरसी के तहत आवेदन किया था उनमें से 4 या 5 प्रतिशत के ही नाम गायब हुए हैं इसके उलट गुवाहाटी जैसी हिंदू बहुल क्षेत्रों से लगभग 16 प्रतिशत लोगों के नाम गायब हैं, ऐसे में यह कहा जा सकता है कि एनआरसी अपने मकसद में कामयाब नहीं रहा है.''
पूर्वोत्तर या देश के अन्य सीमावर्ती इलाकों में एनआरसी लागू करने कितना संभव हो पाएगा इसका अंदाजा तो असम के उदाहरण से ही लगाया जा सकता है.
असम में एनआरसी की प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में पूरी हो रही है. इसके अनुसार एनआरसी में मार्च 1971 के पहले से असम में रह रहे लोगों का नाम दर्ज़ किया गया है, जबकि उसके बाद आए लोगों की नागरिकता को संदिग्ध माना गया है.
ये शर्तें 15 अगस्त, 1985 को तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी और असम आंदोलन का नेतृत्व कर रही असम गण परिषद (एजीपी) के बीच हुए असम समझौते के अनुरूप हैं.
बीजेपी को आगामी चुनावों में एनआरसी का फ़ायदा मिलेगा या नहीं यह अभी स्पष्ट तौर पर नहीं कहा जा सकता लेकिन बाहरी घुसपैठियों देश से बाहर निकालने की बात उठाकर बीजेपी नेता इसे चुनावी मुद्दा बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं.
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